डिफ्लेशन (Deflation) क्या है, इससे अर्थव्यवस्था को क्या फर्क पड़ता है?

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डिफ्लेशन (Deflation) क्या है?

डिफ्लेशन या जिसे हिन्दी में अपस्फीति कहा जाता है अर्थशास्त्र की एक महत्वपूर्ण अवधारणा है, यह किसी अर्थव्यवस्था से जुड़ी एक ऐसी घटना है जिसके चलते वस्तुओं और सेवाओं की कीमतों में लगातार गिरावट देखने को मिलती है।

महंगाई या मुद्रास्फीति से आप सभी वाकिफ हैं, जिसमें उत्पादों की कीमत सामान्य से अधिक बढ़ने लगती है, अपस्फीति (Deflation) महंगाई की ही विपरीत स्थिति को कहा जाता है।

जहाँ महंगाई की स्थिति में पैसे की क्रय शक्ति कम हो जाती है वहीं अपस्फीति समय के साथ पैसे के मूल्य को बढ़ाती है और उपभोक्ता अपनी मौजूदा आय से पहले की तुलना में अधिक वस्तुओं एवं सेवाओं को खरीद पाते हैं।

हालांकि डिफ्लेशन पहली नजर में किसी अर्थव्यवस्था के लिए फायदेमंद लग सकता है किन्तु इसके अर्थव्यवस्था पर अक्सर प्रतिकूल प्रभाव ही देखने को मिलते हैं, जिनकी चर्चा हम लेख में आगे करेंगे।

डिफ्लेशन के क्या कारण है?

डिफ्लेशन के मुख्य रूप से निम्नलिखित तीन कारण हो सकते हैं

  • अर्थव्यवस्था में पैसे की आपूर्ति कम हो जाए
  • वस्तुओं और सेवाओं की माँग में कमी हो जाए
  • उत्पादकता बढ़ जाए या लागत मूल्य पहले की तुलना में कम हो जाए

#1 मुद्रा की आपूर्ति में कमी

मुद्रा आपूर्ति में कमी का मतलब बाजार में उपलब्ध पैसे की मात्रा के कम हो जाने से है, जिसके चलते आर्थिक गतिविधियों और माँग पर प्रभाव नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

यह कमी विभिन्न कारणों से हो सकती है जिनमें सरकार द्वारा टैक्स दरों में वृद्धि, आम लोगों की आय में कमी, सरकारी खर्च में कटौती, बैंक द्वारा लोन की प्रक्रिया को कठिन बनाना या ब्याज दरों में वृद्धि, ओपन मार्केट ऑपरेशंस तथा रिजर्व बैंक द्वारा मौद्रिक नीति को कड़ा करना शामिल हैं।

गौरतलब है कि, अर्थव्यवस्था में पैसे की आपूर्ति भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा मौद्रिक नीति (Monetary Policy) के माध्यम से नियंत्रित करी जाती है, केन्द्रीय बैंक विभिन्न ब्याज दरों जैसे CRR, SLR, रेपो रेट, रिवर्स रेपो रेट इत्यादि में कमी अथवा वृद्धि करके मुद्रा की मात्रा को नियंत्रित करता है।

#2 वस्तुओं और सेवाओं की माँग में कमी

वस्तुओं एवं सेवाओं की माँग में कमी का एक कारण लोगों की जेब में पर्याप्त पैसा न होना है, जिसके कुछ मुख्य कारणों की चर्चा हमनें ऊपर करी, जबकि इसका एक अन्य कारण भविष्य की किसी परिस्थिति जैसे राजनीतिक अस्थिरता, व्यापार युद्ध, वैश्विक महामारी इत्यादि को देखते हुए खर्च में कटौती करना भी हो सकता है।

#3 उत्पादकता में वृद्धि

डिफ्लेशन या अपस्फीति के तीसरे कारण को देखें तो यह उत्पादकता में वृद्धि है, जब एक सामान्य माँग के बावजूद उत्पादकता में वृद्धि होने लगे तो वस्तुओं और सेवाओं की कीमतों में कमी देखने को मिलती है।

व्यवसायों द्वारा अत्यधिक दक्षता के साथ काम करने के चलते उत्पादन की लागत में कमी आ सकती है और उत्पादकता बढ़ सकती है, इसके अलावा कंपनियों द्वारा किये जाने वाले नवाचार (Innovation), उत्पादन के लिए नई टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल आदि कुछ ऐसे उदाहरण हैं जो उत्पादकता को तीव्र गति से बढ़ा सकते हैं, जबकि माँग स्थिर बनी रहती है।

डिफ्लेशन के अर्थव्यवस्था पर प्रभाव

हालांकि डिफ्लेशन उपभोक्ताओं के लिहाज से लाभदायक मालूम पड़ता है क्योंकि इस स्थिति में उपभोक्ता पहले जितनी आय से अब अधिक उत्पाद खरीद सकते हैं, किन्तु डिफ्लेशन (Deflation) के किसी भी अर्थव्यवस्था पर कई प्रतिकूल प्रभाव हो सकते हैं, जिनमें से कुछ प्रमुख निम्नलिखित हैं-

#1 कर्जदारों को नुकसान

डिफ्लेशन के दौरान मुद्रा की वास्तविक मूल्यवृद्धि होती है और इसका सबसे बड़ा नुकसान कर्जदारों को होता है। इस स्थिति में ऋण चुकाने के लिए व्यक्तियों और व्यवसायों को अधिक मूल्यवान पैसे का भुगतान करना पड़ता है, जिसके चलते उन्हें अपने कर्ज को चुकाने में कठिनाई का सामना करना पड़ सकता है।

#2 उपभोक्ता खर्च में कमी

वस्तुओं एवं सेवाओं की कीमतों में लगातार होने वाली कमी के चलते लोगों में यह धारणा बनती है कि, भविष्य में उत्पादों की कीमतों में और गिरावट आ सकती है लिहाजा लोग खर्च करने में कमी करते हैं। इससे उत्पादन में कमी आती है, बेरोजगारी बढ़ती है और अंततः मंदी जैसे हालत उत्पन्न होते हैं।

#3 निवेश में कमी

डिफ्लेशन के कारण निवेश (Investment) भी बुरी तरह प्रभावित होता है, उत्पादों की मांग में कमी आने से कंपनियों की बिक्री और राजस्व (Sales & Revenue) घटता है, जिससे उनके मुनाफे पर नकारात्मक असर पड़ता है। कई स्थितयों में व्यवसायों के लिए कर्ज चुका पाना भी मुश्किल हो जाता है।

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कम मुनाफे और कमजोर मांग के कारण कंपनियाँ अपने खर्चों को कम करने के लिए कर्मचारियों की छंटनी और वेतन में कटौती करती हैं, जिससे कर्मचारियों की क्रय शक्ति घटती है।

यह उपभोक्ता माँग को और भी कम कर देती है और एक नकारात्मक चक्र पैदा होता है। ऐसी स्थिति जबकि कंपनियाँ स्वयं घाटे की स्थिति में हो तो निवेशक व्यवसायों में निवेश करने से बचते हैं।

#4 आर्थिक मंदी का जोखिम

डिफ्लेशन के कारण जनित उत्पादों माँग में कमी धीरे-धीरे अर्थव्यवस्था को मंदी की दिशा में ले जाती है। उत्पादों की मांग और प्रॉफ़िट में कमी के चलते कंपनियाँ उत्पादन घटा सकती हैं और कर्मचारियों की छंटनी कर सकती हैं, इससे उत्पादन में कमी आती है, बेरोजगारी बढ़ने लगती है और अंततः समस्त आर्थिक गतिविधियाँ धीमी होने लगती हैं।

डिफ्लेशन को कैसे कंट्रोल किया जा सकता है?

अपस्फीति (Deflation) को अर्थव्यवस्था में मुद्रा की आपूर्ति को बढ़ाकर नियंत्रित किया जा सकता है। ऐसा करने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक एक बेहतर मौद्रिक नीति बना सकता है। उदाहरण के लिए ब्याज दरों में कमी कर बैंकों से मिलने वाले ऋण को सस्ता किया जा सकता है जिससे पहले की तुलना में और अधिक लोग व्यवसाय, पर्सनल खर्च इत्यादि के लिए लोन ले सकें और बाजार में मांग उत्पन्न कर सकें।

इसके साथ ही केंद्र सरकार भी एक अच्छी राजकोषीय नीति (Fiscal Policy) के जरिये डिफ्लेशन को कंट्रोल कर सकती है। इसके अंतर्गत टैक्स दरों में कमी, सार्वजनिक खर्च में वृद्धि, डाइरेक्ट ट्रांसफर, आर्थिक एवं नियामक सुधार, न्यूनतम वेतन में वृद्धि, वित्तीय संस्थानों का पुनर्पूंजीकरण जैसे विकल्प शामिल हैं।

सार - संक्षेप

अपस्फीति अथवा डिफ्लेशन (Deflation) एक ऐसी स्थिति है जब वस्तुओं और सेवाओं की कीमतों में लगातार गिरावट देखने को मिलती है, यह प्रभावी रूप से मुद्रा के मूल्य को बढ़ाती है।

डिफ्लेशन के कई कारण हो सकते हैं जिनमें पैसे की उपलब्धता में कमी, वस्तुओं एवं सेवाओं की मांग में कमी तथा उत्पादकता में वृद्धि शामिल हैं, यह लंबी अवधि में किसी भी अर्थव्यवस्था के लिए नुकसानदायक है जो बेरोजगारी, अनुत्पादकता तथा मंदी जैसी स्थिति को पैदा कर सकता है।

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