रेपो रेट क्या है तथा इसके कम या ज्यादा होने से आम लोगों पर क्या प्रभाव पड़ता है?

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रेपो रेट क्या है?

आपने अक्सर समाचारों में भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) द्वारा समय-समय पर रेपो रेट (Repo Rate) को बढ़ाये या कम किये जाने के बारे में सुना होगा लेकिन क्या आप जानते हैं रेपो रेट क्या होता है और इसमें होने वाला बदलाव आम लोगों के जीवन को कैसे प्रभावित करता है?

भारतीय रिजर्व बैंक भारत का केन्द्रीय बैंक है, जो देश के लिए मौद्रिक नीति का निर्माण करता है। मौद्रिक नीति के निर्माण और बेहतर क्रियान्वयन करने के लिए आरबीआई जिन तरीकों या टूल्स का इस्तेमाल करता है उन्हीं में से एक रेपो रेट भी है। यह वह दर होती है, जिस पर कमर्शियल बैंक देश के केन्द्रीय बैंक यानि आरबीआई से अल्पकालिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए उधार लेते हैं।

गौरतलब है कि, किसी भी अर्थव्यवस्था में मुद्रा के प्रवाह का अधिक मात्रा में होना महंगाई (Inflation) को जन्म देता है वहीं मुद्रा की मात्रा कम हो जाने से अपस्फीति (Deflation) जैसी समस्या उत्पन्न होती है। मौद्रिक नीति एक ऐसी व्यवस्था है, जिसके द्वारा किसी देश का केन्द्रीय बैंक अर्थव्यवस्था में मुद्रा के प्रवाह को संतुलित करता है ताकि उक्त दोनों परिस्थितियों से बचा जा सके और देश के आर्थिक विकास को बढ़ावा मिले।

रेपो रेट में बदलाव कब किया जाता है?

भारतीय रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति कमेटी (MPC) प्रत्येक दो महीनों में एक बार बैठक करती है और इस दौरान अर्थव्यवस्था की तात्कालिक स्थिति को देखते हुए विभिन्न दरों में बदलाव किये जाते हैं। रेपो दर (Repo Rate) को कम या ज्यादा करना भी रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति का ही हिस्सा है।

साल 2022 में महंगाई अपने चरम पर थी, जिसके चलते भारतीय रिजर्व बैंक इस दौरान लगातार रेपो रेट में वृद्धि कर रहा था। पिछले साल अप्रैल महीने में रेपो रेट 4.0 था जिसके बाद से इसमें लगातार वृद्धि करी गई और इस वर्ष फरवरी महीने में हुई मौद्रिक नीति कमेटी की बैठक के दौरान इसे 25 बेसिस पॉइंट बढ़ाकर 6.25 से 6.50 कर दिया गया और तब से इसमें कोई बदलाव नहीं किया गया है।

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MPC की अक्टूबर महीने में हुई हालिया बैठक में भी इसमें कोई बदलाव नहीं किया गया है अतः वर्तमान में रेपो रेट 6.50 फीसदी ही है। रेपो रेट में वृद्धि के चलते आम लोगों के लिए बैंकों से लोन लेना महंगा होता जा रहा है। पिछले 1.5 साल से आरबीआई द्वारा रेपो रेट में किये गए बदलावों को नीचे दर्शाया गया है।

MPC की बैठकRepo Rate
06-10-20236.50%
10-08-20236.50%
08-06-20236.50%
06-04-20236.50%
08-02-20236.50%
07-12-20226.25%
30-09-20225.90%
05-08-20225.40%
08-06-20224.90%
04-05-20224.40%
08-04-20224.00%

रेपो रेट में बदलाव क्यों किया जाता है?

जैसा कि, हमनें बताया रेपो रेट वह दर है, जिस पर वाणिज्यिक बैंक (Commercial Bank) रिजर्व बैंक से कर्ज लेते हैं अतः यदि रिजर्व बैंक रेपो दर में वृद्धि करता है तो बैंकों के लिए आरबीआई से कर्ज लेना पहले की तुलना में महंगा हो जाता है, लिहाजा बैंक भी अपने ग्राहकों को महंगी ब्याज दरों में ऋण मुहैया करते हैं।

ब्याज दरें महंगी होने के चलते आम लोग, छोटे एवं मध्यम उद्योग, कंपनियां इत्यादि कम मात्रा में बैंकों से लोन लेती हैं और अर्थव्यवस्था में मुद्रा का प्रवाह पहले की तुलना में कम हो जाता है। रेपो रेट के साथ ही रिजर्व बैंक के पास कई अन्य टूल्स भी हैं, जिनका इस्तेमाल कर वह अर्थव्यवस्था में मुद्रा के प्रवाह को कम या ज्यादा करता है विस्तृत जानकारी के लिए "रिजर्व बैंक तथा उसके कार्य" वाला लेख पढ़ें।

रेपो रेट की गणना कैसे की जाती है?

रेपो रेट की गणना देश में महंगाई की दर के आधार पर तय करी जाती है। उदाहरण के लिए यदि महंगाई दर अधिक हो तो उसे कम करने के लिए रिजर्व बैंक रेपो रेट में वृद्धि करता है ताकि अर्थव्यवस्था से मुद्रा के प्रवाह को कम किया जा सके वही यदि महंगाई दर सामान्य से कम हो अथवा अर्थव्यवस्था में मुद्रा के प्रवाह को बढ़ाना हो तो आरबीआई रेपो रेट को कम कर देता है।

रेपो रेट साल में कितनी बार बदलता है?

रेपो रेट (Repo Rate) समेत मौद्रिक नीति से जुड़े अन्य सभी में बदलाव करने का काम रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति समिति करती है और ये सभी निर्णय मौद्रिक नीति समिति की बैठक में लिए जाते हैं जो सामान्यतः प्रत्येक 2 महीनों में एक बार अथवा साल में कम से कम 4 बार होती है।

रेपो रेट में बदलाव से आम लोगों पर क्या असर पड़ता है?

रेपो दर में परिवर्तन से पड़ने वाले प्रभाव को समझने से पहले यह जानना जरूरी है कि, अर्थव्यवस्था में मुद्रा का प्रवाह किस प्रकार होता है। इस कार्य में बैंक एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, बैंक कारोबारियों, छोटे-बड़े उद्योगों, कंपनियों, स्टार्ट-अप्स इत्यादि को लोन देते हैं। मुद्रा आने से उद्योगों का विस्तार होता है तथा अधिक से अधिक लोगों को रोजगार मिलता है और अंततः आम लोगों की जेब में पैसा जाता है।

रेपो दर में वृद्धि या कमी करना अर्थव्यवस्था की तत्कालीन स्थिति पर निर्भर करता है। उदाहरण के लिए यदि देश में महंगाई अपने शीर्ष पर हो तो केन्द्रीय बैंक अर्थव्यवस्था से पैसे के प्रवाह को कम करने की दिशा में कार्य करता है परिणामस्वरूप रेपो दर में वृद्धि करी जाती है ताकि लोन लेना पहले की तुलना में मुश्किल हो। ऐसा होने से उद्योगों के पास पैसे की कमी होती है और आम लोगों तक मुद्रा पहले की तुलना में कम पहुँचती है।

वहीं आम लोगों की दृष्टि से देखें तो रेपो रेट में वृद्धि होने से उनके लिए बैंकों से कर्ज लेना पहले की तुलना में महंगा हो जाता है, जिसके चलते नया कारोबार शुरू करने या किसी अन्य उद्देश्य की पूर्ति करने के लिए मुद्रा प्राप्त करना मुश्किल होता है। इसके विपरीत रेपो रेट में कमी आरबीआई तब करता है जब अर्थव्यवस्था में मुद्रा का प्रवाह बढ़ाना हो इस स्थिति में लोन सस्ते हो जाते हैं और आम लोगों, उद्योगों, कंपनियों आदि के बैंकों से लोन लेने की दर भी बढ़ जाती है।

रेपो रेट और रिवर्स रेपो रेट में क्या अंतर है?

रेपो रेट के साथ ही मौद्रिक नीति के एक अन्य टूल का भी जिक्र अक्सर खबरों में होता है, जिसे रिवर्स रेपो रेट कहा जाता है। यह भी मौद्रिक नीति के सफल क्रियान्वयन के लिए एक जरूरी टूल है, जो अर्थव्यवस्था में मुद्रा की सप्लाई को नियंत्रित करने का काम करता है। रिवर्स रेपो दर जैसा कि, इसके नाम से ही साफ होता है रेपो रेट के विपरीत कार्य करती है। रिवर्स रेपो रेट वह दर है, जिस पर केन्द्रीय बैंक कमर्शियल बैंकों से कर्ज लेता है।

रिवर्स रेपो दर में वृद्धि होने से मुद्रा आपूर्ति में कमी आती है, वहीं इसमें कमी होने से अर्थव्यवस्था में मुद्रा का प्रवाह बढ़ता है। रिवर्स रेपो दर में वृद्धि का मतलब है कि वाणिज्यिक बैंकों को आरबीआई से ब्याज के रूप में अधिक धन की प्राप्ति होगी लिहाजा बैंक अपनी मुद्रा को बाजार में ऋण के रूप में देने के बजाए आरबीआई को देना उचित समझते हैं। इसके अलावा रिवर्स रेपो दर में कमी की स्थिति में ठीक इसका उल्टा होता है।